Shri Ganpati Atharvashirsha occurs in the Atharva Veda. It is considered to be the most important text on Lord Ganesha. Atharva means firmness, the oneness of purpose, while shisha means intellect (directed towards liberation).
It is a Sanskrit text and a minor Upanishad of Hinduism. It is a late Upanishadic text dedicated to Ganesha, the deity representing intellect and learning. It asserts that Ganesha is the same as the eternal underlying reality, Brahman.
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भगवान गणेश बुद्धि, धन, ज्ञान, यश, सम्मान, पद और तमाम भौतिक सुखों को देने वाले देवता के रूप में पूजनीय हैं। भगवान गणेश की प्रसन्नता के लिए शास्त्रों में अनेक जप, मंत्र, पूजा व आरती का महत्व बताया गया है। इनमें सबसे ज्यादा अहमियत श्रीगणपति अथर्वशीर्ष की मानी जाती है।
यह मूलत: भगवान गणेश की वैदिक स्तुति है, जिसमें भगवान गणेश के आवाहन से लेकर ध्यान, नाम से मिलने वाले शुभ फल आदि शामिल है। इस गणपति स्त्रोत का पाठ धार्मिक दृष्टि से सभी दोष से मुक्त करता है, वहीं व्यावहारिक जीवन के कष्टो, दु:खों और बाधाओं से भी रक्षा करता है।
चूंकि यह वेद और संस्कृत भाषा में लिखा गणपति उपासना है। इसलिए अगर संस्कृत भाषा की जानकारी न होने या पढऩे में कठिनाई होने पर आप इसके श्रवण करने पर वहीं शुभ फल पाएंगे, जो आप बोल कर पाते हैं। मंगल की कामना से इसका नियमित पाठ संभव न हो तो बुधवार और चतुर्थी को पाठ जरूर करें।
खासतौर पर गणेश जन्मोत्सव के 10 दिनों में तो एक बार भी श्रीगणपति अथर्वशीर्ष को पढ़ना भाग्य संवारने वाला माना गया है।
Benefits of Shri Ganpati Atharvashirsha
श्री गणपत्यथर्वशीर्ष के लाभ
- यह अथर्वशीर्ष (अथर्ववेद का उपनिषद) है। इसका पाठ जो करता है, ब्रह्म को प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है।
- सब प्रकार के विघ्न उसके लिए बाधक नहीं होते। वह सब जगह सुख पाता है।
- वह पाँचों प्रकार के महान पातकों तथा उप पातकों से मुक्त हो जाता है।
- सायंकाल पाठ करने वाला दिन के पापों का नाश करता है।
- प्रात:काल पाठ करने वाला रात्रि के पापों का नाश करता है, जो प्रात:- सायं दोनों समय इस पाठ का प्रयोग करता है वह निष्पाप हो जाता है।
- वह सर्वत्र विघ्नों का नाश करता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है।
इस अथर्वशीर्ष को जो शिष्य न हो उसे नहीं देना चाहिए। जो मोह के कारण देता है वह पातकी हो जाता है। सहस्र (हजार) बार पाठ करने से जिन-जिन कामों-कामनाओं का उच्चारण करता है, उनकी सिद्धि इसके द्वारा ही मनुष्य कर सकता है।
इसके द्वारा जो गणपति को स्नान कराता है, वह वक्ता बन जाता है। जो चतुर्थी तिथि को उपवास करके जपता है वह विद्यावान हो जाता है, यह अथर्व वाक्य है जो इस मंत्र के द्वारा तपश्चरण करना जानता है वह कदापि भय को प्राप्त नहीं होता।
जो दूर्वांकुर के द्वारा भगवान गणपति का यजन करता है वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजो (धानी-लाई) के द्वारा यजन करता है वह यशस्वी होता है, मेधावी होता है। जो सहस्र (हजार) लड्डुओं (मोदकों) द्वारा यजन करता है, वह वांछित फल को प्राप्त करता है। जो घृत के सहित समिधा से यजन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है।
आठ ब्राह्मणों को सम्यक रीति से ग्राह कराने पर सूर्य के समान तेजस्वी होता है। सूर्य ग्रहण में महानदी में या प्रतिमा के समीप जपने से मंत्र सिद्धि होती है। वह महाविघ्न से मुक्त हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है वह सर्वज्ञ हो जाता है।
Ganpati AtharvaShirsha Text
गणपति अथर्वशीर्ष
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः॥।
ॐ नमस्ते गणपतये। त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि त्वमेव केवलं कर्ताऽसि
त्वमेव केवलं धर्ताऽसि त्वमेव केवलं हर्ताऽसि त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि
त्व साक्षादात्मासि नित्यम्। ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि। अव त्व मांम्।
अव वक्तारम्। अव श्रोतारम्। अव दातारम्। अव धातारम्।
अवा नूचानमव शिष्यम्।अव पश्चातात्।अव पुरस्तात्।
अवोत्तरात्तात्। अव दक्षिणात्तात्। अव चोर्ध्वात्तात्।
अवाधरात्तात्। सर्वतो माँ पाहि-पाहि समंतात्।
त्वं वाङ्मय स्त्वं चिन्मयः। त्वमानंदमसयस्त्वं ब्रह्ममयः।
त्वं सच्चिदानंदात् द्वितीयोसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोसि।
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते। सर्वं जगदिदं त्वत्त स्तिष्ठति।
सर्वं जगदिदं त्वयि वयमेष्यति। सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति।
त्वं भूमिरापोनलो निलो नभः। त्वं चत्वारि वाकूपदानि।
त्वं गुणत्रयातीत: त्वं देहत्रयातीतः। त्वमवस्थात्रयातीतः।त्वं कालत्रयातीतः।
त्वं मूलाधार स्थितोसि नित्यं। त्वं शक्ति त्रयात्मकः।
त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं। त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रूद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं
अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुव:स्वरोम्।
गणादि पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरम्। अनुस्वार: परतरः।
अर्धेन्दुलसितम्। तारेण ऋद्धं। एतत्तव मनुस्व रूपम्।
गकार: पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्।
अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरूत्तररूपम्। नाद: संधानम्।
सँ हितासंधि: सैषा गणेश विद्या। गणकऋषि: निचृद्गायत्रीच्छंदः। गणपतिर्देवता।
ॐ गं गणपतये नमः। एकदंताय विद्महे। वक्रतुण्डाय धीमहि।
तन्नो दंती प्रचोदयात्। एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुश धारिणम्।
रदं च वरदं हस्तै र्विभ्राणं मूषकध्वजम्।
रक्तं लंबोदरं शूर्प कर्णकं रक्तवाससम्।
रक्तगंधानु लिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम्।
भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारण मच्युतम्।
आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृते पुरुषात्परम्।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः।
नमो व्रातपतये। नमो गणपतये। नम: प्रमथपतये।
नमस्ते अस्तु लंबोदरायै एकदंताय। विघ्ननाशिने शिवसुताय।
श्रीवरदमूर्तये नमो नमः।
एतदथर्व शीर्ष योधीते। स ब्रह्म भूयाय कल्पते।
स सर्वत: सुखमेधते। स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते। स पच्चमहापापात्प्रमुच्यते।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।
सायं प्रात: प्रयुंजानो अपापो भवति।
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति। धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति।
इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम्।
यो यदि मोहात् दास्यति स पापीयान् भवति।
सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तंतमनेन साधयेत्।
अनेन गणपति मभिषिंचति स वाग्मी भवति ।
चतुर्थ्यामनश्र्नन जपति स विद्यावान भवति। इत्यथर्वण वाक्यम्।
ब्रह्माद्यावरणं विद्यात् न बिभेति कदाचनेति।
यो दूर्वांकुरैंर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति।
यो लाजैर्यजति स यशोवान भवति स मेधावान भवति।
यो मोदक सहस्रेण यजति स वांछित फल मवाप्रोति।
य: साज्यसमिद्भि र्यजति स सर्वं लभते स सर्वं लभते।
अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्य वर्चस्वी भवति।
सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमा संनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमंत्रों भवति।
महाविघ्नात् प्रमुच्यते। महादोषात् प्रमुच्यते।
महापापात् प्रमुच्यते। स सर्वविद् भवति से सर्वविद् भवति ।
य एवं वेद इत्युपनिषद्।
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा ।भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः ।व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ।स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः ॥।
इति श्रीगणपत्यथर्वशीर्षं समाप्तम् ॥