Suvarna Dhara Stotram | Blessings From Lakshmi

Suvarna Dhara Stotram - Blessings From Lakshmi

📅 Sep 13th, 2021

By Vishesh Narayan

Summary Suvarna Dhara Stotram is a divine prayer of Goddess Lakshmi. The hymn contains a description of the beauty, personality, power, and graciousness of Goddess Lakshmi. The hymn was written by Shankaracharya.


Suvarna Dhara Stotram is a divine prayer of Goddess Lakshmi. Those who sing the praise of Mahalakshmi who is the Vedas personified by these Stotra every day will be blessed with all good qualities, unsurpassed good fortune, and powers of the intellect which will earn praise from even the learned.

The hymn includes a description of the beauty, personality, power, and graciousness of Goddess Lakshmi.

The hymn was composed by Shankaracharya. Sankara welcomed Sannyasa at the age of eight. One day, as a young boy, he was begging for donations to prepare his lunch and he went to the house of a very poor Brahmin lady to beg.

The lady was upset because there was nothing edible in the house. After searching the house once again she found one amla(Amalak, gooseberry) fruit.

She hesitantly offered it to Sankara. He was moved after seeing the situation of the woman and sang hymns praising Goddess Lakshmi.

The Goddess was so pleased that she appeared before him and asked him why he had remembered her. He asked the Goddess to grant riches to the poor woman.

The Goddess first rejected to do so because the lady had not done any work for a charity in her previous birth and it is not possible to change one’s fate.

Shankara told the Goddess that she is the only one who is capable of changing the fate of someone by erasing or changing the writings of the future made by Lord Brahma.

The Goddess was so pleased that she instantly showered the Brahmin lady’s house with gooseberries made of pure gold.

Suvarna Dhara Stotram Meaning

सुवर्णधारा स्तोत्रम् – किस स्तोत्र के पाठ से होती है स्वर्ण वर्षा

वन्दे वन्दारु मन्दारमिन्दिरानन्द कन्दलं
अमन्दानन्द सन्दोह बन्धुरं सिन्धुराननम् |

अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती
भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम् ।
अङ्गीकृताखिल विभूतिरपाङ्गलीला
माङ्गल्यदास्तु मम मङ्गलदेवतायाः ॥ 1 ॥

अर्थ – जैसे भ्रमरी अधखिले कुसुमों से अलंकृत तमाल के पेड़ का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्रीअंगों पर निरंतर पड़ती रहती है तथा जिसमें सम्पूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, वह सम्पूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी की कटाक्षलीला मेरे लिए मंगलदायिनी हो।1

मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः
प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि ।
मालादृशोर्मधुकरीव महोत्पले या
सा मे श्रियं दिशतु सागर सम्भवा याः ॥ 2 ॥

अर्थ – जैसे भ्रमरी महान कमलदल पर आती-जाती या मँडराती रहती है, उसी प्रकार जो मुरशत्रु श्रीहरि के मुखारविंद की ओर बारंबार प्रेमपूर्वक जाती और लज्जा के कारण लौट आती है, वह समुद्रकन्या लक्ष्मी की मनोहर मुग्ध दृष्टिमाला मुझे धन-सम्पत्ति प्रदान करे।2

विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षं
आनन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि ।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्ध-
मिन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः ॥3॥

अर्थ – जो सम्पूर्ण देवताओं के अधिपति इन्द्र के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ है, मुरारि श्रीहरि को भी अधिकाधिक आनन्द प्रदान करनेवाली है तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती है, वह लक्ष्मीजी के अधखुले नयनों की दृष्टि क्षणभर के लिए मुझपर भी थोड़ी सी अवश्य पड़े।3

आमीलिताक्षमधिग्यम मुदा मुकुन्दम्
आनन्दकन्दमनिमेषमनङ्ग तन्त्रम् ।
आकेकरस्थितकनीनिकपद्मनेत्रं
भूत्यै भवन्मम भुजङ्ग शयाङ्गना याः ॥4॥

अर्थ – शेषशायी भगवान विष्णु की धर्मपत्नी श्रीलक्ष्मीजी का वह नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करनेवाला हो, जिसकी पुतली तथा भौं प्रेमवश हो अधखुले, किंतु साथ ही निर्निमेष नयनों से देखनेवाले आनन्दकन्द श्रीमुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं।4

बाह्वन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या
हारावलीव हरिनीलमयी विभाति ।
कामप्रदा भगवतो ‌உपि कटाक्षमाला
कल्याणमावहतु मे कमलालया याः ॥5॥

अर्थ – जो भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि मण्डित वक्षस्थल में इन्द्रनीलमयी हारावली सी सुशोभित होती है तथा उनके भी मन में प्रेम का संचार करनेवाली है, वह कमलकुंजवासिनी कमला की कटाक्षमाला मेरा कल्याण करे।5

कालाम्बुदालि ललितोरसि कैटभारेः
धाराधरे स्फुरति या तटिदङ्गनेव ।
मातुस्समस्तजगतां महनीयमूर्तिः
भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दना याः ॥ 6 ॥

अर्थ – जैसे मेघों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभशत्रु श्रीविष्णु के काली मेघमाला के समान श्यामसुन्दर वक्षस्थल पर प्रकाशित होती हैं, जिन्होंने अपने आविर्भाव से भृगुवंश को आनन्दित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी हैं, उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीया मूर्ति मुझे कल्याण प्रदान करे।6

प्राप्तं पदं प्रथमतः खलु यत्प्रभावात्
माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन ।
मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्थं
मन्दालसं च मकरालय कन्यका याः ॥7॥

अर्थ – समुद्रकन्या कमला की वह मन्द, अलस, मन्थर और अर्धोन्मीलित दृष्टि, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, यहाँ मुझपर पड़े।7

दद्याद्दयानु पवनो द्रविणाम्बुधारां
अस्मिन्नकिञ्चन विहङ्ग शिशौ विषण्णे।
दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं
नारायण प्रणयिनी नयनाम्बुवाहः ॥8॥

अर्थ – भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्ररूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्मरूपी घाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद में पड़े हुए मुझ दीनरूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करे।8

इष्टा विशिष्टमतयोपि यया दयार्द्र
दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते ।
दृष्टिः प्रहृष्ट कमलोदर दीप्तिरिष्टां
पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्कर विष्टरा याः ॥9॥

अर्थ – विशिष्ट बुद्धिवाले मनुष्य जिनके प्रीतिपात्र होकर उनकी दयादृष्टि के प्रभाव से स्वर्गपद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, उन्हीं पद्मासना पद्मा की वह विकसित कमल गर्भ के समान कान्तिमती दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करे।9

गीर्देवतेति गरुडध्वज सुन्दरीति
शाकम्बरीति शशिशेखर वल्लभेति ।
सृष्टि स्थिति प्रलय केलिषु संस्थितायै
तस्यै नमस्त्रिभुवनैक गुरोस्तरुण्यै ॥10॥

अर्थ – जो सृष्टि-लीला के समय ब्रह्मशक्ति के रूप में स्थित होती हैं, पालन-लीला करते समय वैष्णवी शक्ति के रूप में विराजमान होती हैं तथा प्रलय-लीला के काल में रुद्रशक्ति के रूप में अवस्थित होती हैं, उन त्रिभुवन के एक मात्र गुरु भगवान नारायण की नित्ययौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।10

श्रुत्यै नमो உस्तु रमणीय गुणार्णवायै
रत्यै नमो உस्तु रमणीय गुणार्णवायै ।
शक्त्यै नमोஉस्तु शतपत्र निकेतनायै
पुष्ट्यै नमो स्तु पुरुषोत्तम वल्लभायै ॥11॥

अर्थ – हे माता ! शुभ कर्मों का फल देनेवाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिन्धुरूप रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमलवन में निवास करनेवाली शक्तिस्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुरुषोत्तमप्रिया पुष्टि को नमस्कार है।11

नमो உस्तु नालीक निभाननायै
नमो உस्तु दुग्धोदधि जन्मभूम्यै ।
नमो உस्तु सोमामृत सोदरायै
नमो உस्तु नारायण वल्लभायै ॥12॥

अर्थ – कमलवदना कमला को नमस्कार है। क्षीरसिन्धु सम्भूता श्रीदेवी को नमस्कार है। चन्द्रमा और सुधा की सगी बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है।12

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रिय नन्दनानि
साम्राज्य दानविभवानि सरोरुहाक्षि ।
त्वद्वन्दनानि दुरिता हरणोद्यतानि
मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये ॥13॥

अर्थ – कमलसदृश नेत्रोंवाली माननीया माँ ! आपके चरणों में की हुई वन्दना सम्पत्ति प्रदान करनेवाली, सम्पूर्ण इन्द्रियों को आनन्द देनेवाली, साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हर लेने के लिए सर्वथा उद्यत है। मुझे आपकी चरणवन्दना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे।13

यत्कटाक्ष समुपासना विधिः
सेवकस्य सकलार्थ सम्पदः ।
सन्तनोति वचनाङ्ग मानसैः
त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ॥14॥

अर्थ – जिनके कृपाकटाक्ष के लिए की हुई उपासना उपासक के लिए सम्पूर्ण मनोरथों और सम्पत्तियों का विस्तार करती है, श्रीहरि की हृदयेश्वरी उन्हीं आप लक्ष्मीदेवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूँ।14

सरसिजनिलये सरोजहस्ते
धवलतमांशुक गन्धमाल्यशोभे ।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे
त्रिभुवनभूतिकरी प्रसीदमह्यम् ॥15॥

अर्थ – भगवति हरिप्रिये ! तुम कमलवन में निवास करनेवाली हो, तुम्हारे हाथों में लीलाकमल सुशोभित है। तुम अत्यन्त उज्ज्वल वस्त्र, गन्ध और माला आदि से शोभा पा रही हो। तुम्हारी झाँकी बड़ी मनोरम है। त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली देवि ! मुझपर प्रसन्न हो जाओ।15

दिग्घस्तिभिः कनक कुम्भमुखावसृष्ट
स्वर्वाहिनी विमलचारुजलाप्लुताङ्गीम् ।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष
लोकधिनाथ गृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ॥16॥

अर्थ – दिग्गजों द्वारा सुवर्ण कलश के मुख से गिराये गये आकाशगंगा के निर्मल एवं मनोहर जल से जिनके श्रीअंगों का अभिषेक किया जाता है, सम्पूर्ण लोकों के अधीश्वर भगवान विष्णु की गृहिणी और क्षीरसागर की पुत्री उन जगज्जननी लक्ष्मी को मैं प्रातःकाल प्रणाम करता हूँ।16

कमले कमलाक्ष वल्लभे त्वं
करुणापूर तरङ्गितैरपाङ्गैः ।
अवलोकय मामकिञ्चनानां
प्रथमं पात्रमकृतिमं दयायाः ॥17॥

अर्थ – कमलनयन केशव की कमनीय कामिनी कमले ! मैं अकिंचन (दीनहीन) मनुष्यों में अग्रगण्य हूँ, अतएव तुम्हारी कृपा का स्वाभाविक पात्र हूँ। तुम उमड़ती हुई करुणा की बाढ़ की तरल तरंगों के समान कटाक्षों द्वारा मेरी ओर देखो।17

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमीभिरन्वहं
त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम् ।
गुणाधिका गुरुतुर भाग्य भागिनः
भवन्ति ते भुवि बुध भाविताशयाः॥18॥

अर्थ – जो लोग इन स्तुतियों द्वारा प्रतिदिन वेदत्रयीस्वरूपा त्रिभुवनजननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस भूतल पर महान गुणवान और अत्यन्त सौभाग्यशाली होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभाव को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।18
॥ इस प्रकार श्रीमत्शंकराचार्य रचित कनकधारा स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥

सुवर्णधारा स्तोत्रं यच्छङ्कराचार्य निर्मितं
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं स कुबेरसमो भवेत् ॥

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