Tripura Sundari Sannidya Stavah is a divine stotra of Mahavidya Tripura Sundari. Tripura Sundari is also known as Sodasi (the girl of sixteen) is usually listed as the third Mahavidya following Kali and Tara.
Tripura Sundari is the most beautiful in all three worlds. Tripura Sundari is one of the Adi (primary)Mahavidyas. She is called Sodasi because the mantra of her Vidya is composed of sixteen seed syllables (bija- Akshara: ka e i la hrim; ha sa ka ha la hrim; sa ka la hrim; and srim).
The number sixteen is also associated with sixteen individualized aspects, Kalas or sixteen phases of moon Shodasha Kala. Therefore this Vidya is also known as Chandra-Kala- vidya, the wisdom of the ulnar digits.
According to the Srikula tradition in Shaktism, Tripura Sundari is the foremost of the Mahavidyas, the highest aspect of Mahadevi, and also the primary goddess of Sri Vidya.
The Tripura Upanishad places her as the ultimate Shakti of the universe. She is described as the supreme consciousness, ruling from above Brahma, Vishnu, and Shiva.
The Bija-Akshara are invoked as forms of the Mother goddess. Tripura Sundari Stavah: is a wonderful stotra invoking the Goddess with her BIja mantras and is of utmost importance for Her Siddhi.
It is believed that the sadhak who worships Her with this Stotra attains the 16 Kala easily and is very dear to Her.
Tripura Sundari Sannidya Stavah:
श्रीत्रिपुरसुन्दरी सान्निध्यस्तवः ॥
॥ क॥
कल्प-भानु समान-भास्वर-धाम-लोचन-गोचरम्
किं किमित्यति-विस्मिते मयि पश्यतीह समागताम् ।
काल-कुन्तल-भार-निर्जित-नील-मेघ-कुलां पुरः
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमवलोकये ॥ १॥
॥ ए॥
एक-दन्त-षडाननादिभिरावृतां जगदीश्वरीम्
एनसां परि-पन्थिनिमहमेक-भक्ति-मदर्चिताम् ।
एक-हीन-शतेषु जन्मसु सञ्चितात् सुकृतादिमाम्
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमवलोकये ॥ २॥
॥ ई॥
ईदृशीति च वेद-कुन्तल-वाग्भिरप्य निरूपिताम्
ईश-पङ्जज-नाभ-सृष्टि-कृदादि-वन्द्य-पदाम्बुजाम् ।
ईक्षणान्त-निरीक्षणेन मदिष्टदां पुरतोऽधुना
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमवलोकये ॥ ३॥
॥ ल॥
लक्षणोज्जवल-हार-शोभि-पयोधर-द्वय-कैतवात्
लीलयैव दया-रस-स्रवदुज्ज्वलत्-कलशान्विताम् ।
लाक्षयाङ्कित-पादपाति-मिलिन्द-सन्ततिमग्रतः,
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमवलोकये ॥ ४॥
॥ ह्रीं॥
ह्रीमिति प्रति-वासरं जप-सुस्थिरोऽहमुदारया
योगि-मार्ग-निरूढयैक्य-सुभावनां गतया धिया ।
वत्स ! हर्षमवाप्त-वत्यहमित्युदार-गिरं पुरः
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमवलोकये ॥ ५॥
॥ ह॥
हंस-वृन्दमलक्तकारुण-पाद-पङ्कज-नुपुर-
क्वाण-मोहितमादरादनु-धावितं मृदु शृण्वतीम् ।
हंस-मन्त्र-महार्थ-तत्त्व-मयीं पुरो मम भाग्यतः
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमवलोकये ॥ ६॥
॥ स॥
सङ्गतं जलमभ्र-वृन्द-समुद्भवं धरणी- धराद्
धारया वहदञ्जसा भ्रममाप्य सैकत-निर्गतम् ।
एवमादि-महेन्द्र-जाल-सुकोविदां पुरतोऽधुना
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमवलोकये ॥ ७॥
॥ क॥
कम्बु- सुन्दर-कन्धरां कच-वृन्द-निर्जित-वारिदाम्
कण्ठ-देश-लसत् -सुमङ्गल-हेम-सूत्र-विराजिताम् ।
कादि-मन्त्रमुपासतां सकलेष्टदां मम सन्निधौ,
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमहमाश्रये ॥ ८॥
॥ ह॥
हस्त-पद्म-लसत्-त्रिखण्ड-समुद्रिकामहमद्रिजाम्
हस्ति-कृत्ति-परीत-कार्मुक-वल्लरी-सम-चिल्लिकाम् ।
हर्यज-स्तुत-वैभवां भव-कामिनीं मम भाग्यतः
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमहमाश्रये ॥ ९॥
॥ ल॥
लक्षणोल्लसदङ्ग-कान्ति-झरी-निराकृत-विद्युतम्
लास्य-लोल-सुवर्ण-कुण्डल-मण्डितां जगदम्बिकाम् ।
लीलयाऽखिल-सृष्टि-पालन-कर्षणादि-वितन्वतीम्
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमहमाश्रये ॥ १०॥
॥ ह्रीं॥
ह्रींमिति त्रिपुरा-मनु-स्थिर-चेतसा बहुधाऽर्चिताम्
हादि-मन्त्र-महाम्बु-जात-विराजमान-सुहंसिकाम् ।
हेम-कुम्भ-घन-स्तनां चल-लोल-मौक्तिक-भूषणाम्
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमहमाश्रये ॥ ११॥
॥ स॥
सर्व-लोक-नमस्कृतां जित-शर्वरी-रमणाननाम्
शरव-देव-मनः – प्रियां नव-यौवनोन्मद-गर्विताम् ।
सर्व-मङ्गल-विग्रहां मम पूर्व-जन्म-तपो-बलात्
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमहमाश्रये ॥ १२॥
॥ क॥
कन्द-मूल-फलाशिभिर्बहु-योगिभिश्च गवेषिताम्
कुन्द-सुन्दर-दन्त-पंक्ति-विराजितामपराजिताम् ।
कन्दमागम-वीरूधां सुर-सुन्दरीभिरिहागताम्
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमहमाश्रये ॥ १३॥
॥ ल॥
ल-त्रयाङ्कित-मन्त्र-राट्-समलंकृतां जगदम्बिकाम्
लोल-नील-सुकुन्तलावलि-निर्जितालि-कदम्बकाम् ।
लोभ-मोह-विदारणीं करुणा-मयीमरुणां शिवाम्
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमहमाश्रये ॥ १४॥
॥ ह्रीं॥
ह्रीं-पराख्य-महा-मनोरधि-देवतां भुवनेश्वरीम्
हृत्-सरोज-निवासिनीं हर-वल्लभां बहु-रूपिणीम् ।
हार-कुण्डल-नूपुरादिभिरन्वितां पुरतोऽधुना
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमहमाश्रये ॥ १५॥
॥ श्रीं॥
श्रीं सु-पञ्च-दशाक्षरीमपि षोडषाक्षर-रूपिणीम्
श्री-सुधार्णव-मध्य-शोभि-सरोज-कानन-चन्द्निकाम् ।
श्रीगुह-स्तुत-वैभवां पर-देवतां मम सन्निधौ
चक्र-राज-निवासिनीं त्रिपुरेश्वरीमहमाश्रये ॥ १६॥
॥ इति श्रीत्रिपुरसुन्दरी सान्निध्यस्तव सम्पूर्णा ॥