Chhinnamasta Dhyan and Mantra is an article that depicts the similarities and common mantras of Mahavidya Chinnamasta. Devotees mostly practice Chhinnamasta worship to obtain a son, alleviate poverty, develop wisdom, defeat foes, and to become a poet. Self-sacrifice and Kundalini awakening are associated with Chhinnamasta.
A story from the Shakta Maha-Bhagavata Purana recounts the creation of all Mahavidyas, including Chhinnamasta. In this story, Sati, Daksha's daughter, and Shiva's first wife, is insulted because Daksha did not invite her and Shiva to his yagna ("fire sacrifice"), and she insists on attending despite Shiva's protests.
After failing to persuade Shiva, the angered Sati takes on a ferocious form, transforming into the Mahavidyas, who encircle Shiva from all 10 cardinal directions. Chhinnamasta stands to Shiva's right in the west.
The self-decapitated nude goddess, typically standing or seated on a celestial copulating couple, holds her severed head in one hand and a scimitar in the other. Three jets of blood emerge from her bleeding neck and are consumed by her severed head and two attendants.
Chhinnamasta is the Goddess of Contradictions. She represents two sides of Devi: a life-giver and a life-taker. Depending on how you view her, she might be a sign of sexual self-control or an embodiment of sexual vitality.
She symbolizes death, temporality, and destruction, as well as life, immortality, and recreation. The goddess symbolizes spiritual self-realization and the activation of the kundalini, or spiritual force.
Chhinnamasta Dhyan and Mantra
Her left foot forward in battle, she holds her severed head and a knife. Naked, she drinks voluptuously the stream of the blood nectar flowing from her beheaded body. The jewel on her forehead is tied with a serpent. She has three eyes. Her breasts are adorned with lotuses. Inclined towards lust, she sits erect above the god of love, who shows signs of lustfulness. She looks like the red China rose. – Chinnamasta Tantra
भगवती छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय है। इसे कोई उच्च कोटि का साधक ही जान सकता है | महाविधाओं में इनका तीसरा स्थान है। इन्रके प्रादुर्भाव की कथा इस प्रकार है एक बार भगवती भवानी अपनी सहचरी जया और विजया के साथ मन्दाकिनी में स्नान करने के लिये गयी।
स्न्नान्नोपरान्त क्षुधाग्नि से पीड़ित होकर वे कृष्ण वर्ण की हो गयी। उस समय उनकी सहचरियों ने भी उनसे कुछ भोजन करने के लिये माँगा। देवी ने उनसे कुछ समय प्रतीक्षा करने के लिये कहा। थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद सहचरियों ने जब पुनः भोजन के लिये निवेदन किया, तब देवी ने उनसे कुछ देर और प्रतीक्षा करने के लिए कहा।
इस पर सहचरियों ने देवी से विनम्र स्वर में कहा कि 'माँ तो अपने शिशुओं को भूख लगने पर अविलम्ब भोजन प्रदान करती है। आप हमारी उपेक्षा क्यों कर रही है?' अपने सहचरियों के मधुर वचन सुनकर कृपामयी देवी ने अपने खड़ग से अपना सिर काट दिया।
कटा हुआ सिर देवी के बायें हाथ में आ गिरा और उनके कबन्ध से रक्त की तीन धाराएँ प्रवाहित हुई। देवी ने वे दो धाराओं को अपनी दोनों सहचरियों की और प्रवाहित कर दिया, जिसे पीती हुई दोनों प्रसन्न होने लगी और तीसरी धारा को देवी स्वयं पान करने लगीं। तभी से देवी छिन्नमस्ता के नाम से प्रसिद्ध हुई।
ऐसा विधान है कि आधी रात अर्थात् चतुर्थ संध्याकाल में छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती सिद्ध हो जाती है। शत्रु-विजय, स्समूह- स्तम्भन, राज्य-प्राप्ति और दुर्लभ मोक्ष-प्राप्ति के लिये छिन्नमस्ता की उपासना
अमोघ है।
ये देवी श्वेत कमल-पीठ पर खड़ी है। दिशाएँ ही इन्रके वस्त्र हैं। इनकी नाभि में योनिचक्र है। कृष्णा (तम) गौर रक्त (रज) गुणों की देवियाँ इन्रकी सहचरियाँ हैं | यह अपना शीश काटकर भी जीवित हैं |
साधक माँ भगवती छिन्नमस्ता चित्र और यन्त्र का सामान्य पूजन करे। उस पर कुमकुम, अक्षत और पुष्प चढ़ावें। किसी मिष्ठान्न का भोग लगाएं। उसके सामने दीपक और लोबान धूप जला लें। फिर साधक दाहिने हाथ में जल लेकर निम्न विनियोग मन्त्र पढ़ें ---
विनियोग :----- ॐ अस्य श्री शिरच्छिन्नामन्त्रस्य भैरव ऋषिः सम्राट् छन्दः श्री छिन्नमस्ता देवता ह्रींकारद्वयं बीजं स्वाहा शक्तिः मम् अभीष्ट कार्य सिध्यर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास :-----
ॐ भैरव ऋषयै नमः शिरसि। (सिर को स्पर्श करें)
ॐ सम्राट् छन्दसे नमः मुखे। (मुख को स्पर्श करें)
ॐ श्री छिन्नमस्ता देवतायै नमः हृदये। (हृदय को स्पर्श करें)
ॐ ह्रीं ह्रीं बीजाय नमो गुह्ये। (गुह्य स्थान को स्पर्श करें)
ॐ स्वाहा शक्तये नमः पादयोः। (पैरों को स्पर्श करें)
ॐ ममाभीष्ट कार्य सिद्धयर्थये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे। (सभी अंगों को स्पर्श करें)
करन्यास :-----
ॐ आं खड्गाय स्वाहा अँगुष्ठयोः। (दोनों तर्जनी उंगलियों से दोनों अँगूठे को स्पर्श करें)
ॐ ईं सुखदगाय स्वाहा तर्जन्योः। (दोनों अँगूठों से दोनों तर्जनी उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ऊं वज्राय स्वाहा मध्यमयोः। (दोनों अँगूठों से दोनों मध्यमा उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ऐं पाशाय स्वाहा अनामिकयोः। (दोनों अँगूठों से दोनों अनामिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ औं अंकुशाय स्वाहा कनिष्ठयोः। (दोनों अँगूठों से दोनों कनिष्ठिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ अ: सुरक्ष रक्ष ह्रीं ह्रीं स्वाहा करतलकर पृष्ठयोः। (परस्पर दोनों हाथों को स्पर्श करें)
हृदयादिन्यास :-----
ॐ आं खड्गाय हृदयाय नमः स्वाहा। (हृदय को स्पर्श करें)
ॐ ईं सुखदगाय शिरसे स्वाहा स्वाहा। (सिर को स्पर्श करें)
ॐ ऊं वज्राय शिखायै वषट् स्वाहा। (शिखा को स्पर्श करें)
ॐ ऐं पाशाय कवचाय हूं स्वाहा। (भुजाओं को स्पर्श करें)
ॐ औं अंकुशाय नेत्रत्रयाय वौषट् स्वाहा। (नेत्रों को स्पर्श करें)
ॐ अ: सुरक्ष रक्ष ह्रीं ह्रीं अस्त्राय फट् स्वाहा। (सिर से घूमाकर तीन बार ताली बजाएं)
व्यापक न्यास :-----
ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्रवेरोचनियै ह्रींह्रीं फट् स्वाहा मस्तकादि पादपर्यन्तम्।
ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्रवेरोचनियै ह्रीं ह्रीं फट् स्वाहा पादादि मस्तकान्तम्।
इससे तीन बार न्यास करें।
इसके बाद साधक हाथ जोड़कर निम्न ध्यान मन्त्र से भगवती छिन्नमस्ता का ध्यान करें ---
ध्यान :-----
ॐ भास्वन्मण्डलमध्यगां निजशिरश्छिन्नं विकीर्णालकम्
स्फारास्यं प्रपिबद्गलात् स्वरुधिरं वामे करे बिभ्रतीम्।
याभासक्तरतिस्मरोपरिगतां सख्यौ निजे डाकिनी
वर्णिन्यौ परिदृश्य मोदकलितां श्रीछिन्नमस्तां भजे॥
इसके बाद साधक भगवती छिन्नमस्ता के मूलमन्त्र का रद्राक्ष माला से ६० माला जाप करें ---
मन्त्र :----------
॥ ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचनीयै ह्रीं ह्रीं फट् स्वाहा ॥
OM SHREEM HREEM HREEM KLEEM AIM VAJRA VAIROCHANEEYEI HREEM HREEM PHAT SWAAHA.
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मन्त्र जाप के उपरान्त साधक निम्न सन्दर्भ का उच्चारण करने के बाद एक आचमनी जल छोड़कर सम्पूर्ण जाप भगवती छिन्नमस्ता को समर्पित कर दें।
ॐ गुह्यातिगुह्य गोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपं।
सिद्धिर्भवतु मे देवि! त्वत्प्रसादान्महेश्वरि ॥
इस प्रकार यह साधना क्रम साधक नित्य २१ दिनों तक निरन्तर सम्पन्न करें।
जब पूरे सवा लाख मन्त्र जाप हो जाएं, तब पलाश के पुष्प अथवा बिल्व के पुष्पों से दशांश हवन करें। ऐसा करने पर यह साधना सिद्ध हो जाती है।
साधना नियम :----------
१. ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें।
२. एक समय फलाहार लें, अन्न लेना वर्जित है।
३. मन्त्र जाप समाप्ति के बाद उसी स्थान पर सो जाएं।
४. साधना काल में साधक अन्य कोई कार्य, नौकरी, व्यापार आदि न करे।
छिन्नमस्ता साधना सौम्य साधना है और आज के भौतिक युग में इस साधना की नितान्त आवश्यकता है। इस साधना के द्वारा साधक जहाँ पूर्ण भौतिक सुख प्राप्त कर सकता है, वहीं वह आध्यात्मिक क्षेत्र में भी पूर्णता प्राप्त करने में समर्थ होता है। साधक कई साधनाओं में स्वतः सफलता प्राप्त कर लेता है और इस साधना के द्वारा कई-कई जन्मों के पाप कटकर वह निर्मल हो जाता है। यह साधना अत्यधिक सरल, उपयोगी और आश्चर्यजनक सफलता देने में समर्थ है।