Pitra Stuti is a divine prayer to pacify the pitras, or deceased ancestors. It is found in the Garuda Purana. The sage Ruchir rehearsed this prayer to placate the pitras.
Pitras personified them before Ruchir and sanctified him with many boons. They tell us that any seeker who chants this prayer in the Shraddha Parva provides pleasure to the Pitras for years.
Reciting this hymn during Shradh gives us happiness and satisfaction that lasts for twelve years. Reciting this Stotra on the occasion of Shradh in the season of Hemant gives us satisfaction for twelve years.
Satisfied with the person who praises us with this hymn, we will give him the desired enjoyment and best self-knowledge. He who desires a healthy body, wealth and sons and grandsons, etc., should always praise us with this prayer.
This hymn is supposed to increase our happiness. One who recites this stotra with devotion standing in front of the brahmins who eat at Shradh, with the love of hearing the stotra, we will certainly be present here and the Shradh done for us will undoubtedly be inexhaustible.
पितरदोष से शान्ति हेतु एवं पितरजनों की प्रसन्नता हेतु श्राद्ध के अवसर, पर्वकाल में अथवा नित्य इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये।
नित्य इसका पाठ करने से मनुष्य का सर्व प्रकार से कल्याण होता है। दक्षिण दिशा की ओर मुख करके श्वेत पुष्प, श्वेत चन्दन अर्पित करते हुए, तिल के तेल का दीपक प्रज्जवलित कर इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये ।
पितृस्तोत्रं पितृस्तुतिः
श्रीगारुडे महापुराणे पितृस्तोत्रे रुचिस्तोत्रं नाम ऊननवतितमोऽध्यायान्तर्गतम् ।
pitri'stotram pitri'stutih'
shreegaarud'e mahaapuraane pitri'stotre ruchistotram naama oonanavatitamo'dhyaayaantargatam .
रुचिरुवाच ।
नमस्येऽहं पितॄन्भक्त्या ये वसन्त्यधिदेवतम् ।
देवैरपि हि तर्प्यन्ते ये श्राद्धेषु स्वधोत्तरैः ॥ १॥
ruchiruvaacha .
namasye'ham pitree'nbhaktyaa ye vasantyadhidevatam. Var devataah'
devairapi hi tarpyante ye shraaddheshu svadhottaraih'
रुचि बोले-
जो श्राद्ध में अधिष्ठाता देवता के रूप में निवास करते हैं तथा देवता भी श्राद्ध में 'स्वधान्त' वचनों द्वारा जिनका तर्पण करते हैं, उन पितरों को मैं प्रणाम करता हूं।
नमस्येऽहं पितॄन्स्वर्गे ये तर्प्यन्ते महर्षिभिः ।
श्राद्धैर्मनोमयैर्भक्त्या भुक्तिमुक्तिमभीप्सुभिः ॥ २॥
नमस्येऽहं पितॄन्स्वर्गे सिद्धाः सन्तर्पयन्ति यान् ।
श्राद्धेषु दिव्यैः सकलैरुपहारैरनुत्तमैः ॥ ३॥
नमस्येऽहं पितॄन्भक्त्या येऽर्च्यन्ते गुह्यकैर्दिवि ।
तन्मयत्वेन वाञ्छद्भिरृद्धिमात्यन्तिकीं पराम् ॥ ४॥
नमस्येऽहं पितॄन्मर्त्यैरर्च्यन्ते भुवि ये सदा ।
श्राद्धेषु श्रद्धयाभीष्टलोकपुष्टिप्रदायिनः ॥ ५॥ १
नमस्येऽहं पितॄन्विप्रैरर्च्यन्ते भुवि ये सदा ।
वाञ्छिताभीष्टलाभाय प्राजापत्यप्रदायिनः ॥ ६॥
namasye'ham pitree'nsvarge ye tarpyante maharshibhih' .
shraaddhairmanomayairbhaktyaa bhuktimuktimabheepsubhih' .. 2..
namasye'ham pitree'nsvarge siddhaah' santarpayanti yaan .
shraaddheshu divyaih' sakalairupahaarairanuttamaih' .. 3..
namasye'ham pitree'nbhaktyaa ye'rchyante guhyakairdivi .
tanmayatvena vaanchhadbhirri'ddhimaatyantikeem paraam .. 4..
namasye'ham pitree'nmartyairarchyante bhuvi ye sadaa .
shraaddheshu shraddhayaabheesht'alokapusht'ipradaayinah' .. 5..
namasye'ham pitree'nviprairarchyante bhuvi ye sadaa .
vaanchhitaabheesht'alaabhaaya praajaapatyapradaayinah' .. 6.
भक्ति और मुक्ति की अभिलाषा रखने वाले महर्षिगण स्वर्ग में भी मानसिक श्राद्धों के द्वारा भक्तिपूर्वक जिन्हें तृप्त करते हैं, सिद्धगण दिव्य उपहारों द्वारा श्राद्ध में जिनको संतुष्ट करते हैं, आत्यन्तिक समृद्धि की इच्छा रखने वाले गुह्यक भी तन्मय होकर भक्तिभाव से जिनकी पूजा करते हैं, भूलोक में मनुष्यगण जिनकी सदा आराधना करते हैं, जो श्राद्धों में श्रद्धापूर्वक पूजित होने पर मनोवांछित लोक प्रदान करते हैं, पृथ्वी पर ब्राह्मण लोग अभिलषित वस्तु की प्राप्ति के लिये जिनकी अर्चना करते हैं तथा जो आराधना करने पर प्राजापत्य लोक प्रदान करते हैं, उन पितरों को मैं प्रणाम करता हूं।
नमस्येऽहं पितॄन्ये वै तर्प्यन्तेऽरण्यवासिभिः ।
वन्यैः श्राद्धैर्यताहारैस्तपोनिर्धूतकल्मषैः ॥ ७॥
namasye'ham pitree'nye vai tarpyante'ranyavaasibhih' .
vanyaih' shraaddhairyataahaaraistaponirdhootakalmashaih' .. 7..
तपस्या करने से जिनके पाप धुल गये हैं तथा जो संयमपूर्वक आहार करने वाले हैं, ऐसे वनवासी महात्मा वन के फल-मूलों द्वारा श्राद्ध करके जिन्हें तृप्त करते हैं, उन पितरों को मैं मस्तक झुकाता हूं।
नमस्येऽहं पितॄन्विप्रैर्नैष्ठिकैर्धर्मचारिभिः ।
ये संयतात्मभिर्नित्यं सन्तर्प्यन्ते समाधिभिः ॥ ८॥
नमस्येऽहं पितॄञ्छ्राद्धै राजन्यास्तर्पयन्ति यान् ।
कव्यैरशेषैर्विधिवल्लोकद्वयफलप्रदान् ॥ ९॥
नमस्येऽहं पितॄन्वैश्यैरर्च्यन्ते भुवि ये सदा ।
स्वकर्माभिरतैर्न्नित्यं पुष्पधूपान्नवारिभिः ॥ १०॥
नमस्येऽहं पितॄञ्छ्राद्धे शूद्रैरपि च भक्तितः ।
सन्तर्प्यते जगत्कृत्स्नं नाम्ना ख्याताः सुकालिनः ॥ ११॥
namasye'ham pitree'nviprairnaisht'hikairdharmachaaribhih' .
ye samyataatmabhirnityam santarpyante samaadhibhih' .. 8..
namasye'ham pitree'nchhraaddhai raajanyaastarpayanti yaan .
kavyairasheshairvidhivallokadvayaphalapradaan .. 9..
namasye'ham pitree'nvaishyairarchyante bhuvi ye sadaa .
svakarmaabhiratairnnityam pushpadhoopaannavaaribhih' .. 10..
namasye'ham pitree'nchhraaddhe shoodrairapi cha bhaktitah' .
santarpyate jagatkri'tsnam naamnaa khyaataah' sukaalinah' .. 11.
नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले संयतात्मा ब्राह्मण समाधि के द्वारा जिन्हें सदा तृप्त करते हैं, क्षत्रिय सब प्रकार के श्राद्धोपयोगी पदार्थों के द्वारा विधिवत् श्राद्ध करके जिनको संतुष्ट करते हैं, जो तीनों लोकों को अभीष्ट फल देने वाले हैं, स्वकर्मपरायण वैश्य पुष्प, धूप, अन्न और जल आदि के द्वारा जिनकी पूजा करते हैं तथा शूद्र भी श्राद्धों द्वारा भक्तिपूर्वक जिनकी तृप्ति करते हैं और जो संसार में सुकाली के नाम से विख्यात हैं, उन पितरों को मैं प्रणाम करता हूं।
नमस्येऽहं पितॄञ्छ्राद्धे पाताले ये महासुरैः ।
सन्तर्प्यन्ते सुधाहारास्त्यक्तदम्भमदैः सदा ॥ १२॥
नमस्येऽहं पितॄञ्छ्राद्धैरर्च्यन्ते ये रसातले ।
भोगैरशेषैर्विधिवन्नागैः कामानभीप्सुभिः ॥ १३॥
नमस्येऽहं पितॄञ्छ्राद्धैः सर्पैः सन्तर्पितान्सदा ।
तत्रैव विधिवन्मन्त्रभोगसम्पत्समन्वितैः ॥ १४॥
namasye'ham pitree'nchhraaddhe paataale ye mahaasuraih' .
santarpyante sudhaahaaraastyaktadambhamadaih' sadaa .. 12..
namasye'ham pitree'nchhraaddhairarchyante ye rasaatale .
bhogairasheshairvidhivannaagaih' kaamaanabheepsubhih' .. 13..
namasye'ham pitree'nchhraaddhaih' sarpaih' santarpitaansadaa .
tatraiva vidhivanmantrabhogasampatsamanvitaih' .. 14..
पाताल में बड़े-बड़े दैत्य भी दम्भ और मद त्यागकर श्राद्धों द्वारा जिन स्वधाभोजी पितरों को सदा तृप्त करते हैं, मनोवांछित भोगों को पाने की इच्छा रखने वाले नागगण रसातल में सम्पूर्ण भोगों एवं श्राद्धों से जिनकी पूजा करते हैं तथा मंत्र, भोग और सम्पत्तियों से युक्त 'सर्पगण भी रसातल में ही विधिपूर्वक श्राद्ध करके जिन्हें सर्वदा तृप्त करते हैं, उन पितरों को मैं नमस्कार करता हूं।
पितॄन्नमस्ये निवसन्ति साक्षाद्ये देवलोकेऽथ महीतले वा ।
तथाऽन्तरिक्षे च सुरारिपूज्यास्ते वै प्रतीच्छन्तु मयोपनीतम् ॥ १५॥
pitree'nnamasye nivasanti saakshaadye devaloke'tha maheetale vaa .
tathaa'ntarikshe cha suraaripoojyaaste vai prateechchhantu mayopaneetam .. 15..
जो साक्षात् देवलोक में, अंतरिक्ष में और भूतल पर निवास करते हैं, देवता आदि समस्त देहधारी जिनकी पूजा करते हैं, उन पितरों को मैं नमस्कार करता हूं। वे पितर मेरे द्वारा अर्पित किये हुए इस जल को ग्रहण करें।
पितॄन्नमस्ये परमार्थभूता ये वै विमाने निवसन्त्यमूर्ताः ।
यजन्ति यानस्तमलैर्मनोभिर्योगीश्वराः क्लेशविमुक्तिहेतून् ॥ १६॥
pitree'nnamasye paramaarthabhootaa ye vai vimaane nivasantyamoortaah' .
yajanti yaanastamalairmanobhiryogeeshvaraah' kleshavimuktihetoon .. 16..
जो परमात्मस्वरूप पितर मूर्तिमान् होकर विमानों में निवास करते हैं, जो समस्त क्लेशों से छुटकारा दिलाने में हेतु हैं तथा योगीश्वरगण निर्मल हृदय से जिनका यजन करते हैं, उन पितरों को मैं प्रणाम करता हूं।
पितॄन्नमस्ये दिवि ये च मूर्ताः स्वधाभुजः काम्यफलाभिसन्धौ ।
प्रदानशक्ताः सकलेप्सितानां विमुक्तिदा येऽनभिसंहितेषु ॥ १७॥
pitree'nnamasye divi ye cha moortaah' svadhaabhujah' kaamyaphalaabhisandhau .
pradaanashaktaah' sakalepsitaanaam vimuktidaa ye'nabhisamhiteshu .. 17..
जो स्वधाभोजी पितर दिव्यलोक में मूर्तिमान् होकर रहते हैं, काम्यफल की इच्छा रखने वाले पुरुष की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं और निष्काम पुरुषों को मोक्ष प्रदान करने वाले हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूं।
तृप्यन्तु तेऽस्मिन्पितरः समस्ता इच्छावतां ये प्रदिशन्ति कामान् ।
सुरत्वमिन्द्रत्वमितोऽधिकं वा गजाश्वरत्नानि महागृहाणि ॥ १८॥
tri'pyantu te'sminpitarah' samastaa ichchhaavataam ye pradishanti kaamaan .
suratvamindratvamito'dhikam vaa gajaashvaratnaani mahaagri'haani .. 18.
वे समस्त पितर इस जल से तृप्त हों, जो चाहने वाले पुरुषों को इच्छानुसार भोग प्रदान करते हैं, देवत्व, इन्द्रत्व तथा उससे भी ऊंचे पद की प्राप्ति कराते हैं; इतना ही नहीं, जो पुत्र, पशु, धन, बल और गृह भी प्रदान करते हैं।
सोमस्य ये रश्मिषु येऽर्कबिम्बे शुक्ले विमाने च सदा वसन्ति ।
तृप्यन्तु तेऽस्मिन्पितरोऽन्नतोयैर्गन्धादिना पुष्टिमितो व्रजन्तु ॥ १९॥
येषां हुतेऽग्नौ हविषा च तृप्तिर्ये भुञ्जते विप्रशरीरसंस्थाः ।
ये पिण्डदानेन मुदं प्रयान्ति तृप्यन्तु तेऽस्मिन्पितरोऽन्नतोयैः ॥ २०॥
somasya ye rashmishu ye'rkabimbe shukle vimaane cha sadaa vasanti .
tri'pyantu te'sminpitaro'nnatoyairgandhaadinaa pusht'imito vrajantu .. 19..
yeshaam hute'gnau havishaa cha tri'ptirye bhunjate viprashareerasamsthaah' .
ye pind'adaanena mudam prayaanti tri'pyantu te'sminpitaro'nnatoyaih' .. 20..
जो पितर चन्द्रमा की किरणों में, सूर्य के मण्डल में तथा श्वेत विमानों में सदा निवास करते हैं, वे मेरे दिये हुए अन्न, जल और गंध आदि से तृप्त एवं पुष्ट हों अग्नि में हविष्य का हवन करने से जिनकों तृप्ति होती है, जो ब्राह्मणों के शरीर में स्थित होकर भोजन करते हैं तथा पिण्डदान करने से जिन्हें प्रसन्नता प्राप्त होती है, वे पितर यहां मेरे दिये हुए अन्न और जल से तृप्त हों।
ये खड्गमांसेन सुरैरभीष्टैः कृष्णैस्तिलैर्दिव्य मनोहरैश्च ।
कालेन शाकेन महर्षिवर्यैः सम्प्रीणितास्ते मुदमत्र यान्तु ॥ २१॥
कव्यान्यशेषाणि च यान्यभीष्टान्यतीव तेषां मम पूजितानाम् ।
तेषाञ्च सान्निध्यमिहास्तु पुष्पगन्धाम्बुभोज्येषु मया कृतेषु ॥ २२॥
ye khad'gamaamsena surairabheesht'aih' kri'shnaistilairdivya manoharaishcha .
kaalena shaakena maharshivaryaih' sampreenitaaste mudamatra yaantu .. 21..
kavyaanyasheshaani cha yaanyabheesht'aanyateeva teshaam mama poojitaanaam .
teshaancha saannidhyamihaastu pushpagandhaambubhojyeshu mayaa kri'teshu .. 22.
जो देवताओं से भी पूजित हैं तथा सब प्रकार से श्राद्धोपयोगी पदार्थ जिन्हें अत्यन्त प्रिय हैं, वे पितर यहां पधारें। मेरे निवेदन किये हुए पुष्प, गंध, अन्न एवं भोज्य पदार्थों के निकट उनकी उपस्थिति हो।
दिनेदिने ये प्रतिगृह्णतेऽर्चां मासान्तपूज्या भुवि येऽष्टकासु ।
ये वत्सरान्तेऽभ्युदये च पूज्याः प्रयान्तु ते मे पितरोऽत्र तुष्टिम् ॥ २३॥
dinedine ye pratigri'hnate'rchaam maasaantapoojyaa bhuvi ye'sht'akaasu .
ye vatsaraante'bhyudaye cha poojyaah' prayaantu te me pitaro'tra tusht'im .. 23
जो प्रतिदिन पूजा ग्रहण करते हैं, प्रत्येक मास के अंत में जिनकी पूजा करनी उचित है, जो अष्टकाओं में, वर्ष के अंत में तथा अभ्युदयकाल में भी पूजनीय हैं, वे मेरे पितर यहां तृप्ति लाभ करें।
पूज्या द्विजानां कुमुदेन्दुभासो ये क्षत्रियाणां ज्वलनार्कवर्णाः ।
तथा विशां ये कनकावदाता नीलीप्रभाः शूद्रजनस्य ये च ॥ २४॥
तेऽस्मिन्समस्ता मम पुष्पगन्धधूपाम्बुभोज्यादिनिवेदनेन ।
तथाऽग्निहोमेन च यान्ति तृप्तिं सदा पितृभ्यः प्रणतोऽस्मि तेभ्यः ॥ २५॥
poojyaa dvijaanaam kumudendubhaaso ye kshatriyaanaam jvalanaarkavarnaah' .
tathaa vishaam ye kanakaavadaataa neeleeprabhaah' shoodrajanasya ye cha .. 24..
te'sminsamastaa mama pushpagandhadhoopaambubhojyaadinivedanena .
tathaa'gnihomena cha yaanti tri'ptim sadaa pitri'bhyah' pranato'smi tebhyah' .. 25.
जो ब्राह्मणों के यहां कुमुद और चन्द्रमा के समान शान्ति धारण करके आते हैं, क्षत्रियों के लिये जिनका वर्ण नवोदित सूर्य के समान है, जो वैश्यों के यहां सुवर्ण के समान उज्जवल कान्ति धारण करते हैं तथा शूद्रों के लिये जो श्याम वर्ण के हो जाते हैं, वे समस्त पितर मेरे दिये हुए पुष्प, गंध, धूप, अन्न और जल आदि से तथा अग्निहोत्र से सदा तृप्ति लाभ करें। मैं उन सबको प्रणाम करता हूं।
ये देवपूर्वाण्यभितृप्तिहेतोर श्रन्ति कव्यानि शुभाहृतानि ।
तृप्ताश्च ये भूतिसृजो भवन्ति तृप्यन्तु तेऽस्मिन्प्रणतोऽस्मि तेभ्यः ॥ २६॥
ye devapoorvaanyabhitri'ptihetora shranti kavyaani shubhaahri'taani .
tri'ptaashcha ye bhootisri'jo bhavanti tri'pyantu te'sminpranato'smi tebhyah' .. 26
जो वैश्वदेवपूर्वक समर्पित किये हुए श्राद्ध को पूर्ण तृप्ति के लिये भोजन करते हैं और तृप्त हो जाने पर ऐश्वर्य की सृष्टि करते हैं, वे पितर यहां तृप्त हों। मैं उन सबको नमस्कार करता हूं।
रक्षांसि भूतान्यसुरांस्तथोग्रात्रिर्णाशयन्तु त्वशिवं प्रजानाम् ।
आद्याः सुराणाममरेशपूज्यास्तृप्यन्तु तेऽस्मिन्प्रणतोऽस्मितेभ्यः ॥ २७॥
rakshaamsi bhootaanyasuraamstathograatrirnaashayantu tvashivam prajaanaam .
aadyaah' suraanaamamareshapoojyaastri'pyantu te'sminpranato'smitebhyah' .. 27..
जो राक्षसों, भूतों तथा भयानक असुरों का नाश करते हैं, प्रजाजनों का अमंगल दूर करते हैं, जो देवताओं के भी पूर्ववर्ती तथा देवराज इन्द्र के भी पूज्य हैं, वे यहां तृप्त हों। मैं उन्हें प्रणाम करता हूं।
अग्निष्वात्ता बर्हिषद आज्यपाः सोमपास्तथा ।
व्रजन्तु तृप्तिं श्राद्धेऽस्मिन्पितरस्तर्पिता मया ॥ २८॥
अग्निष्वात्ताः पितृगणाः प्राचीं रक्षन्तु मे दिशम् ।
तथा बर्हिषदः पान्तु याम्यां मे पितरः सदा ।
प्रतीचीमाज्यपास्तद्वदुदीचीमपि सोमपाः ॥ २९॥
रक्षोभूतपिशाचेभ्यस्तथैवासुरदोषतः ।
agnishvaattaa barhishada aajyapaah' somapaastathaa .
vrajantu tri'ptim shraaddhe'sminpitarastarpitaa mayaa .. 28.
agnishvaattaah' pitri'ganaah' praacheem rakshantu me disham .
tathaa barhishadah' paantu yaamyaam me pitarah' sadaa .
prateecheemaajyapaastadvadudeecheemapi somapaah' .. 29..
अग्निष्वात्त पितृगण मेरी पूर्व दिशा की रक्षा करें, बर्हिषद् पितृगण दक्षिण दिशा की रक्षा करें। आज्यप नाम वाले पितर पश्चिम दिशा की तथा सोमप संज्ञक पितर उत्तर दिशा की रक्षा करें। उन सबके स्वामी यमराज राक्षसों, भूतों, पिशाचों तथा असुरों के दोष से सब ओर से मेरी रक्षा करें।
सर्वतः पितरो रक्षां कुर्वन्तु मम नित्यशः ॥ ३०॥
विश्वो विश्वभुगाराध्यो धर्मो धन्यः शुभाननः ।
भूतिदो भूतिकृद्भूतिः पितॄणां ये गणा नव ॥ ३१॥
कल्याणः कल्यदः कर्ता कल्यः कल्यतराश्रयः ।
कल्यताहेतुरन्घः षडिमे ते गणाः स्मृताः ॥ ३२॥
rakshobhootapishaachebhyastathaivaasuradoshatah' .
sarvatah' pitaro rakshaam kurvantu mama nityashah' .. 30.
vishvo vishvabhugaaraadhyo dharmo dhanyah' shubhaananah' .
bhootido bhootikri'dbhootih' pitree'naam ye ganaa nava .. 31..
kalyaanah' kalyadah' kartaa kalyah' kalyataraashrayah' .
kalyataaheturanghah' shad'ime te ganaah' smri'taah' .. 32.
विश्वक, विश्वभुक्, आराध्य, धर्म, धन्य, शुभानन, भूतिद, भूतिकृ त् और भूति- ये पितरों के नौ गण हैं। कल्याण, कल्यताकर्ता, कल्य, कल्यतराश्रय, कल्यताहेतु तथा अनद्य- ये पितरों के छः गण माने गये हैं।
वरो वरेण्यो वरदस्तुष्टिदः पुष्टिदस्तथा ।
विश्वपाता तथा धाता सप्तैते च गणाः स्मृताः ॥ ३३॥
varo varenyo varadastusht'idah' pusht'idastathaa .
vishvapaataa tathaa dhaataa saptaite cha ganaah' smri'taah' .. 33.
वर, वरेण्य, वरद, पुष्टिद, तुष्टिद, विश्वपाता तथा धाता- ये पितरों के सात गण हैं।
महान्महात्मा महितो महिमावान्महाबलः ।
गणाः पञ्च तथैवैते पितॄणां पापनाशनाः ॥ ३४॥
सुखदो धनदश्चान्यो धर्मदोऽन्यश्च भूतिदः ।
पितॄणां कथ्यते चैव तथा गणचतुष्टयम् ॥ ३५॥
एकत्रिंशत्पितृगणा यैर्व्याप्तमखिलं जगत् ।
त एवात्र पितृगणास्तुष्यन्तु च मदाहितात् ॥ ३६॥
mahaanmahaatmaa mahito mahimaavaanmahaabalah' .
ganaah' pancha tathaivaite pitree'naam paapanaashanaah' .. 34.
sukhado dhanadashchaanyo dharmado'nyashcha bhootidah' .
pitree'naam kathyate chaiva tathaa ganachatusht'ayam .. 35.
ekatrimshatpitri'ganaa yairvyaaptamakhilam jagat .
ta evaatra pitri'ganaastushyantu cha madaahitaat .. 36..
महान्, महात्मा, महित, महिमावान् और महाबल- ये पितरों के पापनाशक पांच गण हैं। सुखद, धनद, धर्मद और भूतिद- ये पितरों के चार गण कहे जाते हैं। इस प्रकार कुल इकतीस पितरगण हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रखा है। वे सब पूर्ण तृप्त होकर मुझ पर संतुष्ट हों और सदा मेरा हित करें।
माक्रण्डेय उवाच ।
एवं तु स्तुवतस्तस्य तेजसोराशिरुच्छ्रितः ।
प्रादुर्बभूव सहसा गगनव्याप्तिकारकः ॥ ३७॥ १,८९.४९
तद्दृष्ट्वा सुमहत्तेजः समाच्छाद्य स्थितं जगत् ।
जानुभ्यामवनीं गत्वा रुचिः स्तोत्रमिदञ्जगौ ॥ ३८॥ १,८९.५०
maakrand'eya uvaacha .
evam tu stuvatastasya tejasoraashiruchchhritah' .
praadurbabhoova sahasaa gaganavyaaptikaarakah' .. 37..
taddri'sht'vaa sumahattejah' samaachchhaadya sthitam jagat .
jaanubhyaamavaneem gatvaa ruchih' stotramidanjagau .. 38.
मार्कण्डेयजी कहते हैं- मुने! इस प्रकार स्तुति करते हुए रुचि के समक्ष सहसा एक बहुत ऊंचा तेजपुंज प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण आकाश में व्याप्त था। समस्त संसार को व्याप्त करके स्थित हुए उस महान् तेज को देखकर रुचि ने पृथ्वी पर घुटने टेक दिये और इस स्तोत्र का गान किया I
रुचिरुवाच ।
अर्चितानाममूर्तानां पितॄणां दीप्ततेजसाम् ।
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम् ॥ ३९॥
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा ।
सप्तर्षोणां तथाऽन्येषां तान्नमस्यामि कामदान् ॥ ४०॥
ruchiruvaacha .
architaanaamamoortaanaam pitree'naam deeptatejasaam .
namasyaami sadaa teshaam dhyaaninaam divyachakshushaam .. 39..
indraadeenaam cha netaaro dakshamaareechayostathaa .
saptarshonaam tathaa'nyeshaam taannamasyaami kaamadaan .. 40.
रुचि बोले- जो सबके द्वारा पूजित, अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्य दृष्टि सम्पन्न हैं, उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूं। जो इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नेता हैं, कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरों को मैं प्रणाम करता हूं।
मन्वादीनां च नेतारः सूर्याचन्द्रमसोस्तथा ।
तान्नमस्याम्यहं सर्वान्पितॄनप्युदधावपि ॥ ४१॥
manvaadeenaam cha netaarah' sooryaachandramasostathaa .
taannamasyaamyaham sarvaanpitree'napyudadhaavapi .. 41..
जो मनु आदि राजर्षियों, मुनीश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक हैं, उन समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र में भी नमस्कार करता हूं।
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा ।
द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृताञ्जलिः ॥ ४२॥
nakshatraanaam grahaanaam cha vaayvagnyornabhasastathaa .
dyaavaapri'thivyoshcha tathaa namasyaami kri'taanjalih' .. 42.
नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो नेता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूं। जो देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूं ।
प्रजापतेः कश्यपाय सोमाय वरुणाय च ।
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृताञ्जलिः ॥ ४३॥
नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु ।
स्वायम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे ॥ ४४॥
prajaapateh' kashyapaaya somaaya varunaaya cha .
yogeshvarebhyashcha sadaa namasyaami kri'taanjalih' .. 43..
namo ganebhyah' saptabhyastathaa lokeshu saptasu .
svaayambhuve namasyaami brahmane yogachakshushe .. 44..
प्रजापति, कश्यप, सोम, वरुण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूं। सातों लोकों में स्थित सात पितरगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टि सम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूं।
सोमाधारान्पितृगणान्योगमूर्तिधरांस्तथा ।
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम् ॥ ४५॥
अग्निरूपांस्तथैवान्यान्नमस्यामि पितॄनहम् ।
अग्निसोममयं विश्वं यत एतदशेषतः ॥ ४६॥
somaadhaaraanpitri'ganaanyogamoortidharaamstathaa .
namasyaami tathaa somam pitaram jagataamaham .. 45.
agniroopaamstathaivaanyaannamasyaami pitree'naham .
agnisomamayam vishvam yata etadasheshatah' .. 46..
चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितरगणों को मैं प्रणाम करता हूं। साथ ही सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूं तथा अग्निस्वरूप अन्य पितरों को भी प्रणाम करता हूं; क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है।
ये च तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः ।
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः ॥ ४७॥
तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः ।
नमोनमो नमस्तेऽस्तु प्रसीदन्तु स्वधाभुजः ॥ ४८॥
ye cha tejasi ye chaite somasooryaagnimoortayah' .
jagatsvaroopinashchaiva tathaa brahmasvaroopinah' .. 47..
tebhyo'khilebhyo yogibhyah' pitri'bhyo yatamaanasah' .
namonamo namaste'stu praseedantu svadhaabhujah' .. 48..
जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरों को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूं। उन्हें बारम्बार नमस्कार है। वे स्वधाभोजी पितर मुझपर प्रसन्न हो ।
इति श्रीगारुडे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे रुचिकृतपितृस्तोत्रं नामैकोननवतितमोऽध्यायान्तर्गतम् ।
मार्कण्डेयजी कहते हैं- मुनिश्रेष्ठ ! रुचि के इस प्रकार स्तुति करने पर वे पितर दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए उस तेज से बाहर निकले। रुचि ने जो फूल, चन्दन और अंगराग आदि समर्पित किये थे, उन सबसे विभूषित होकर वे पितर सामने खड़े दिखाई दिये।
तब रुचि ने हाथ जोड़कर पुनः भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया और बड़े आदर के साथ सबसे पृथक-पृथक कहा- 'आपको नमस्कार है, आपको नमस्कार है।' इससे प्रसन्न होकर पितरों ने मुनिश्रेष्ठ रुचि से कहा- 'वत्स! तुम कोई वर मांगो।'
तब उन्होंने मस्तक झुकाकर कहा- 'पितरों! इस समय ब्रह्माजी ने मुझे सृष्टि करने का आदेश दिया है; इसलिये मैं दिव्य गुणों से सम्पन्न उत्तम पत्नी चाहता हूं, जिससे संतान की उत्पत्ति हो सके।'
पितरों ने कहा- वत्स! यहीं, इसी समय तुम्हें अत्यन्त मनोहर पत्नी प्राप्त होगी और उसके गर्भ से तुम्हें 'मनु' संज्ञक उत्तम पुत्र की प्राप्ति होगी। वह बुद्धिमान पुत्र मन्वन्तर का स्वामी होगा और तुम्हारे ही नाम पर तीनों लोकों में 'रौच्य' के नाम से उसकी ख्याति होगी।
उसके भी महाबलवान् और पराक्रमी बहुत से महात्मा पुत्र होंगे, जो इस पृथ्वी का पालन करेंगे। धर्मज्ञ ! तुम भी प्रजापति होकर चार प्रकार की प्रजा उत्पन्न करोगे और फिर अपना अधिकार क्षीण होने पर सिद्धि प्राप्त करोगे ।
जो मनुष्य इस स्तोत्र से भक्तिपूर्वक हमारी स्तुति करेगा, उसके ऊपर संतुष्ट होकर हम लोग उसे मनोवांछित भोग तथा उत्तम आत्मज्ञान प्रदान करेंगे। जो नीरोग शरीर, धन और पुत्र-पौत्र आदि की इच्छा करता हो, वह सदा इस स्तोत्र से हमारी स्तुति करे।
यह स्तोत्र हम लोगों की प्रसन्नता बढ़ाने वाला है। जो श्राद्ध में भोजन करने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मणों के सामने खड़ा होकर भक्तिपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करेगा, उसके यहां स्तोत्र श्रवण के प्रेम से हम निश्चय ही उपस्थित होंगे और हमारे लिये किया हुआ श्राद्ध भी निःसन्देह अक्षय होगा।
चाहे श्रोत्रिय ब्राह्मण से रहित श्राद्ध हो, चाहे वह किसी दोष से दूषित हो गया हो अथवा अन्यायोपार्जित धन से किया गया हो अथवा श्राद्ध के लिये अयोग्य दूषित सामग्रियों से उसका अनुष्ठान किया गया हो, अनुचित समय या अयोग्य देश में हुआ हो या उसमें विधि का उल्लंघन किया गया हो अथवा लोगों ने बिना श्रद्धा के या दिखावे के लिये किया हो तो भी वह श्राद्ध इस स्तोत्र के पाठ से हमारी तृप्ति करने में समर्थ होता है।
हमें सुख देने वाला यह स्तोत्र जहां श्राद्ध में पढ़ा जाता है, वहां हम लोगों को बारह वर्षो तक बनी रहने वाली तृप्ति प्राप्त होती है। यह स्तोत्र हेमन्त ऋतु में श्राद्ध के अवसर पर सुनाने से हमें बारह वर्षो के लिये तृप्ति प्रदान करता है।
इसी प्रकार शिशिर ऋतु में यह कल्याणमय स्तोत्र हमारे लिये चौबीस वर्षो तक तृप्तिकारक होता है। वसन्त ऋतु में श्राद्ध में सुनाने पर यह सोलह वर्षो तक तृप्तिकारक होता है तथा ग्रीष्म ऋतु में पढ़े जाने पर भी यह उतने ही वर्षो तक तृप्ति का साधक होता है।
रुचे! वर्षा ऋतु में किया हुआ श्राद्ध यदि किसी अंग से विकल हो तो भी इस स्तोत्र के पाठ से पूर्ण होता है और उस श्राद्ध से हमें अक्षय तृप्ति होती है। शरदकाल में भी श्राद्ध के अवसर पर यदि इसका पाठ हो तो यह हमें पन्द्रह वर्षो तक के लिये तृप्ति प्रदान करता है।
जिस घर में यह स्तोत्र सदा लिखकर रखा जाता है, वहां श्राद्ध करने पर हमारी निश्चय ही उपस्थिति होती है; अतः महाभाग ! श्राद्ध में भोजन करने वाले ब्राह्मणों के सामने तुम्हें यह स्तोत्र अवश्य सुनाना चाहिये; क्योंकि यह हमारी पुष्टि करने वाला है।