Swadha Stotram | Pitra Stuti By Brahma | Meaning

Swadha Stotram - Pitra Stuti By Brahma - Meaning

📅 Sep 13th, 2021

By Vishesh Narayan

Summary Swadha Stotram is a panacea to remove the Pitra Dosha and Pitra Shrap from one’s life. Pitras are the ancestors who had lived before us and our forefathers. Pitras have been described in many Hindu scriptures. Pitras are equivalent to Gods.


Swadha Stotram is a panacea that removes the Pitra Dosha & Pitra Shrapa from one’s life. Pitras are the ancestors who had lived before us and our forefathers.

Many Hindu scriptures describe Pitras. Pitras are equivalent to gods. Our body has come into existence because of our ancestors.

Pitra Dosha occurs when our ancestors and departed forefathers' souls do not get peace.

There are three types of influence by which Pitras impact our lives which are Pitri Rin, Pitri Shraap, and Pitri Dosha.

Pitru Dosh occurs if any ancestors up to the 7th generation on the father’s side and up to the 4th generation on the mother’s side have expired at an early age or have had an unnatural death.

Pitra Dosha can cause severe and unknown problems in the life of family members.

Pitra Dosha can cause problems like family disputes, health issues, inability to get married, childlessness, mentally or physically retarded children, the demise of children at an early age, repeated miscarriages, suicidal tendencies, uncontrollable pain persisting even after medication, depression, and addictions.

The Swadha Stotra is depicted in the Brahmvaivarta Purana, Prakruti Khanda. Lord Brahma tells Swadha Stotra.

Lord Brahma has promised that only by uttering “Swadha '' one can get the benefit of bathing in a holy river.

By repeating the word "Swadha" three times, one gains benefits from performing Sradha, Kal, and Tarpanam.

If someone repeats the word "Swadha" thrice on a day of Sradha, they will receive the merit of performing a hundred Sradha karmas.

Swadha Stotram Meaning

॥ स्वधास्तोत्रम् ॥

ब्रह्मोवाच –
स्वधोच्चारणमात्रेण तीर्थस्नायी भवेन्नरः ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाजपेयफलं लभेत् ॥ १ ॥

BRAHMOVACHA
SVADHOCHCHARANAMATRENA TIRTHASNAYI BHAVENNARAH |
MUCHYATE SARVAPAPEBHYO VAJAPEYAPHALAM LABHET || 1 ||

अर्थ- ब्रह्माजी बोले
स्वधा शब्द के उच्चारण मात्र से मानव तीर्थ स्नायी हो जाता है। वह सम्पूर्ण पापोँ से मुक्त होकर वाजपेय यज्ञ के फल का अधिकरी हो जाता है॥

स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं यदि वारत्रयं स्मरेत् ।
श्राद्धस्य फलमाप्नोति कालतर्पणयोस्तथा ॥ २ ॥

SVADHA SVADHA SVADHETYEVAM YADI VARATRAYAM SMARET |
SHRADDHASYA PHALAMAPNOTI KALATARPANAYOSTATHA || 2 ||
स्वधा,स्वधा,स्वधा, – इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाये तो श्राद्ध, काल और तर्पण के पुरुष को प्राप्त हो जाते हैँ|

श्राद्धकाले स्वधास्तोत्रं यः शृणोति समाहितः ।
लभेच्छ्राद्धशतानाञ्च पुण्यमेव न संशयः ॥ ३ ॥

SHRADDHAKALE SVADHASTOTRAM YAH SHR^INOTI SAMAHITAH |
LABHECHCHRADDHASHATANANCHA PUNYAMEVA NA SAMSHAYAH || 3 ||
श्राद्धके अवसर पर जो पुरुष सावधान होकर स्वधा देवी के स्तोत्र का श्रवण करता है,वह सौ श्राद्धो का पुण्य पा लेता है, इसमेँ संशय नहीँ है

स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ।
प्रियां विनीतां स लभेत्साध्वीं पुत्रं गुणान्वितम् ॥ ४ ॥

SVADHA SVADHA SVADHETYEVAM TRISANDHYAM YAH PATHENNARAH |
PRIYAM VINITAM SA LABHETSADHVIM PUTRAM GUNANVITAM || 4 ||
जो मानव स्वधा, स्वधा, स्वधा इस पवित्र नाम का त्रिकाल सन्ध्या के समय पाठ करता है, उसे विनीत, पतिव्रता एवं प्रिय पत्नी प्राप्त होती है तथा सद्गुण सम्पन्न पुत्र का लाभ होता है।

पितॄणां प्राणतुल्या त्वं द्विजजीवनरूपिणी ।
श्राद्धाधिष्ठातृदेवी च श्राद्धादीनां फलप्रदा ॥ ५ ॥

PITR^INAM PRANATULYA TVAM DVIJAJIVANARUPINI |
SHRADDHADHISHTHATR^IDEVI CHA SHRADDHADINAM PHALAPRADA || 5 ||
देवि ! तुम पितरोँ के लिये प्राणतुल्या और ब्राह्मणोँ के लिये जीवन स्वरूपिणी हो। तुम्हेँ श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। तुम्हारी ही कृपा से श्राद्ध और तर्पण आदि के फल मिलते हैँ।

बहिर्मन्मनसो गच्छ पितॄणां तुष्टिहेतवे ।
सम्प्रीतये द्विजातीनां गृहिणां वृद्धिहेतवे ॥ ६ ॥

BAHIRMANMANASO GACHCHA PITR^INAM TUSHTIHETAVE |
SAMPRITAYE DVIJATINAM GR^IHINAM VR^IDDHIHETAVE || 6 ||
दवि ! तुम पितरोँ की तुष्टि, द्विजातियोँ की प्रीति तथा गृहस्थोँ की अभिवृद्धि के लिये मुझ ब्रह्मा के मन से निकल कर बाहर आ जायो।

नित्यानित्यस्वरूपासि गुणरूपासि सुव्रते ।
आविर्भावस्तिरोभावः सृष्टौ च प्रलये तव ॥ ७ ॥

NITYANITYASVARUPASI GUNARUPASI SUVRATE |
AVIRBHAVASTIROBHAVAH SR^ISHTAU CHA PRALAYE TAVA || 7 ||
सुव्रते! तुम नित्य हो तुम्हारा विग्रह नित्य और गुणमय है। तुम सृष्टि के समय प्रकट होती हो और प्रलयकाल मेँ तुम्हारा तिरोभाव हो जाता है

ॐ स्वस्ति च नमः स्वाहा स्वधा त्वं दक्षिणा तथा ।
निरूपिताश्चतुर्वेदे षट्प्रशस्ताश्च कर्मिणाम् ॥ ८ ॥

OM SVASTI CHA NAMAH SVAHA SVADHA TVAM DAKSHINA TATHA |
NIRUPITASHCHATURVEDE SHATPRASHASTASHCHA KARMINAM || 8 ||
तुम ॐ, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा एवं दक्षिणा हो॥ चारोँ वेदोँ द्वारा तुम्हारे इन छः स्वरूपोँ का निरूपण किया गया है, कर्मकाण्डी लोगोँ मेँ इन छहोँ की बड़ी मान्यता है।

पुरासीत्त्वं स्वधागोपी गोलोके राधिकासखी ।
धृतोरसि स्वधात्मानं कृतं तेन स्वधा स्मृता ॥ ९ ॥
PURASITTVAM SVADHAGOPI GOLOKE RADHIKASAKHI |
DHR^ITORASI SVADHATMANAM KR^ITAM TENA SVADHA SMR^ITA || 9 ||
हे देवि ! तुम पहले गोलोक मेँ “स्वधा” नाम की गोपी थी और राधिका की सखी थी, भगवान श्री कृष्ण ने अपने वक्षः स्थल पर तुम्हेँ धारण किया, इसी कारण तुम “स्वधा” नाम से जानी गयी॥

इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मा ब्रह्मलोके च संसदि ।
तस्थौ च सहसा सद्यः स्वधा साविर्बभूव ह ॥ १० ॥

ITYEVAMUKTVA SA BRAHMA BRAHMALOKE CHA SAMSADI |
TASTHAU CHA SAHASA SADYAH SVADHA SAVIRBABHUVA HA || 10 ||
इस प्रकार देवी स्वधा की महिमा गा कर ब्रह्मा जी अपनी सभा मेँ विराजमान हो गये। इतने मेँ सहसा भगवती स्वधा उन के सामने प्रकट हो गयी॥

तदा पितृभ्यः प्रददौ तामेव कमलाननाम् ।
तां संप्राप्य ययुस्ते च पितरश्च प्रहर्षिताः ॥ ११ ॥
TADA PITR^IBHYAH PRADADAU TAMEVA KAMALANANAM |
TAM SAMPRAPYA YAYUSTE CHA PITARASHCHA PRAHARSHITAH || 11 ||
तब पितामह ने उन कमलनयनी देवी को पितरोँ के प्रति समर्पण कर दिया। उन देवी की प्राप्ति से पितर अत्यन्त प्रसन्न हो कर अपने लोक को चले गये॥

स्वधा स्तोत्रमिदं पुण्यं यः शृणोति समाहितः ।
स स्नातः सर्वतीर्थेषु वेदपाठफलं लभेत् ॥ १२ ॥

SVADHA STOTRAMIDAM PUNYAM YAH SHR^INOTI SAMAHITAH |
SA SNATAH SARVATIRTHESHU VEDAPATHAPHALAM LABHET || 12 ||
यह भगवती स्वधा का पुनीत सतोत्र है। जो पुरुष समाहित चित्त से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थोँ मेँ स्नान कर लिया और वह वेदपाठ का फल प्राप्त कर लेता है॥

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये
प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसण्वादे स्वधोपाख्याने
स्वधोत्पत्ति तत्पूजादिकं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
स्वधास्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
स्वधा, स्वधा, स्वधा……..

|| ITI SHRIBRAHMAVAIVARTTE MAHAPURANE DVITIYE
PRAKR^ITIKHANDE NARADANARAYANASANVADE SVADHOPAKHYANE
SVADHOTPATTI TATPUJADIKAM NAMAIKACHATVARIMSHO.ADHYAYAH || ||
SVADHASTOTRAM SAMPURNAM |
इस प्रकार श्री ब्रह्मवैवर्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड मेँ ब्रह्माकृत “स्वधा स्तोत्र” सम्पूर्ण हुया॥
सर्व पितृं शान्ति शान्ति शान्ति, (स्वधा,स्वधा, स्वधा)

“स्वधास्तोत्रम्” पाठ के अनुसार स्वधा,स्वधा, स्वधा, इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाये तो श्राद्ध, काल और तर्पण के फल प्राप्त हो जाते है |

सर्व पितृं शान्ति! शान्ति!! शान्ति!!! हे मेरे पितृगण ! मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है, न धान्य। हां मेरे पास आपके लिए श्रद्धा है।

मैँ इन्ही के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूँ। आप तृप्त हो जाएं। मैँ दोनो भुजायेँ आकाश की ओर उठा कर आप को नमन करता हूँ। आप को नमस्कार है।


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